एक दिया तू भीं जला
एक दिया तू भीं
जला
उस घनघोर रात में,
उस पथ के अंधकार में,
अपने अंदर के मानव को जगा
एक दिया तू भीं जला।।
जंग के इस बंद मैदान में,
बिना किसी खुले हथियार के,
अपने अंदर के इस डर को भगा
एक दिया तू भीं जला।।
शहर में, गांव में, डगमगाते उन पांव में,
मर रहा है जो बिना किसी भाव में,
उन मज़दूरों का मोल बढ़ा
एक दिया तू भीं जला।।
इन वीरों के इतने बड़े त्याग में,
इनकी महानता के दुर्लभ प्यार में,
इस प्यार पर तू रंग चढ़ा
एक दिया तू भीं जला।।
अबीहा इन्तेख़ाब
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