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ज़ंग लगी हुई सोच

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 आज मम्मी सुबह से बोल रही थी अब्बो आज हास्पिटल चलना है आंटी से मिलने उनकी तबीयत खराब है देखने के लिये मैने कहा ठीक है मैं चलूंगीं हास्पिटल पहुचीं....जी मुझे पता है आप को मेरी रोज़ की ज़िन्दगी की कहानी सुनने का कोई शौक़ नहीं पर क्या करूं आज का दिन बहुत अलग था जिसने मुझे भीं परेशान कर दिया.....हास्पिटल पहुंचते ही मैने मम्मी से कहा आप चलिये मैं स्कूटी खड़ी करके आती हूं मम्मी चली गयी स्कूटी खड़ी करके मैं भी हास्पिटल के बरामदे में दाखि़ल हुई बहुत आराम से हाथ में स्कूटी की चाभी लिये सीढ़ियों की तरफ बढ़ रही थी.....तभी पीछे से मुझे किसे के चीख़ने की आवाज़ सुनाई दी मैने पीछे मुड़ कर देखा तो स्ट्रैचर पर कोई लेटा हुआ था और दो वार्डबाय जल्दी जल्दी उसे धक्का देते हुये ला रहे थे और उनके पीछे एक औरत जिनकी उम्र शायद पैतालिस या पचास के पास होगी दौड़ी चली आ रही थी आंसू लगातार बह रहे थे जैसे उनका सब कुछ बरबाद हो चुका हो इस बरबादी में भी उम्मीद की वो एक रेखा खिचती हुई बार बार कह रही थी कि कोई मेरी बेटी को बचा लो इस स्थिती को मैं देख ही रही थी,,, कुछ समझती उतने में वो स्ट्रैचर मेरे सामने से होता हुआ गुज़रा

एक शख़्स (बापू)

 एक शख़्स ,जिसकी शख़्सियत थीं एक।                                                                                                   दुनिया में जिसकी तबीयत की कैफियत थीं एक।। जब चला था ,वो एक तन्हा मुतासिर।                                                                                                         कुछ बरोज़ पे था वो हर दिल पे हाज़िर।। पूरा करके गया, अहद वो अकेला बन्दा।                                                                                                   जबकि ताक़त की रोशनी में था सबसे अंधा ।। शख़्स था न वो, दुनिया में हर शख़्स से कुछ ख़ास।                                                                                    उसके फर्ज़ो से उठा दिल में उसकी हस्ती का एहसास।।  सिखा के गया सबक, दुनिया में कुछ करके मिटने का।                                                                              सिखा के गया सबक दुनिया में अपनी हस्ती याद रखने का।। कर ना पाया वो कुछ ,अपनी हस्ती के लिये।                                                                                   

मेरी मां

                                                                                                                                                   मेरी मां उसकी पहली आवाज़,जब मेरे कानों में यू पड़ी,  सोचती हूं आज भीं लौट आये काश वों घड़ी। मैं छोटी थी,तो करती थी हज़ार गलतियां, वों मां ही थी जो पहचानती थी, झट से मेरी सारी शैतानियां। जब पहली बार उसने छोड़ा था, मुझे स्कूल में, पूरा दिन रहीं परेशां, इसी फितूर में, कहीं चोट न मुझे लगे, तो मैं उसे बुलाऊंगी, ये सोच कर वो वापस नहीं गई, दरे स्कूल से। मैं हो गई हूं बड़ी ,उसे समझाती रही, पर वो हमेशां ,मेरी फिकर में घबराती रही। तेरी पायल की आवाज़, तेरे आने की आहट बताती है, तेरे आंचल से छूटते ही, ज़िन्दगी अपने रंग दिखाती है। मेरे हर सफर में ,तू ही साथ मेरे जाती है, मेरे हर इम्तेहान में ,तू भीं हमेशा जागी है, तू है तो मैं हूं, मैं हूं तो तू है, मेरी मां मेरी ज़िन्दगी की सबसे सच्ची साथी है। तेरे होने से, ही मेरा वजूद है, तू है बस, इसलिए मेरी ज़िन्दगी में सुकून है। अबीहा यही सच्चाई है ,दुन

एक दिया तू भीं जला

  एक दिया तू भीं जला उस घनघोर रात में, उस पथ के अंधकार में, अपने अंदर के मानव को जगा एक दिया तू भीं जला।। जंग के इस बंद मैदान में, बिना किसी खुले हथियार के, अपने अंदर के इस डर को भगा एक दिया तू भीं जला।। शहर में, गांव में, डगमगाते उन पांव में, मर रहा है जो बिना किसी भाव में, उन मज़दूरों का मोल   बढ़ा एक दिया तू भीं जला।। इन वीरों के इतने बड़े त्याग में, इनकी महानता के दुर्लभ प्यार में, इस प्यार पर तू रंग चढ़ा एक दिया तू भीं जला।।                                                                                                   अबीहा इन्तेख़ाब

मेरी ज़िन्दगी

मेरी ज़िन्दगी वो आज मुझे देख के कहते है ,कि तू अब इंसान नहीं  उन्हें पता है, अब शायद पहले जैसे मेरे हालात नहीं।।  फिर भीं चले आते हैं, मुझे बदनाम करने के लिये मेरा बचा हुआ किरदार, तबाह करने के लिये।। वो जानते हैं, मेरी बरबादी में कुछ उनके भीं निशां है गुनाह कि उस तड़प से ,शायद वों भीं अब परेशां है।। खत्म कर दिया, मैनें हाले जिन्दगी अब किसी को सुनाना क्योंकि बन चुका है ये अब काफी पुराना फंसाना।।                                                                          अबीहा इन्तेख़ाब                                                 

वक्त के पांव कितनी तेजी से बढ़ते है।,,,,,,,,,,,,,,,,पर पीछे के निशान साथ ले कर चलते है।

वक्त के पांव कितनी तेजी से बढ़ते है।,,,,,,,,,,,,,,,,पर पीछे के निशान साथ ले कर चलते है। क्या लगता है आपको कि वक्त के पांव सच में तेजी से बढ़ते है शायद आपकों को भीं ये सच लगता है क्या कहा हाँ , सच कहा चलिए तो इस वक्त की रफ्तार को किसी लड़की की जिन्दगीं से जोड कर चलते है जिसे मै जानती हू आप नहीं , पर जान जायेगे वक्त आपको समझा देगा , अभी लगता है जैसे कुछ दिनों पहले कि ही बात है मेरे घर के पड़ोस में एक प्यारी से बच्ची का जन्म हुआ रंग उजला हुआ जैसे चाँदनी की सारी ललिमा लपेट कर धरती पर आयी कोई सुंदरी आँखे इतनी बड़ी जैसे समुन्द्र की सारी जहाज़े उसमे खो जाये गरदन हिरनी जैसी होठ जैसे गुलाबों की रानी ने आपना बलिदान दे कर उसके होठो पर रक्त छिड़का हो उसकी सुंदरता देखकर पहला शब्द उसकी दादी के मुँह से निकला मैनें सुना लड़की हुई जब ये शब्द उनके मुहं से निकला तो मानो ऐसा लगा जैसे उनकी कोई बरसो की तपस्या का फल भगवान ने उनके लाख तप जाप करने के बाद नहीं दिया। पिता की बड़ी बड़ी आंखो ने जब उनके तरफ देखा तो उन्हें ऐसा लगा जैसे उन्होने गलत शब्दो का जाल बिछाया फिर वो नजरे नीची करके मानो जैसे

भारत की दूसरी आज़ादी के स्वतंत्रता सेनानी

भारत की दूसरी आज़ादी के स्वतंत्रता सेनानी क्या लिखूं इस दौर में अब तो अन्दर का लेखक भीं मर चुका है, पर क्या करुं लिखना तो पड़ेगा ही अपनी क़लम को इस दौर की जागी हुई उम्मीदों का सहारा देकर आगे बढ़ाती हूं, हम सब जानते है आज के इन हालतों को पर शायद हमारा और आप का देखने का नज़रिया अलग होगा, या यूं कहिये एक जैसा भीं हो सकता है। सब सही चल रहा था ,हम अपने देश के कई तरह राजनीतिक मुद्दो में उलछे पड़े थे रोज की वहीं बहस चाहें वो बड़े शहर के शीशे के होटलों में शीशे की चाय से छलक्ती वों प्यालियां, चाहे वो गांव के फूंस के चौपालों में मिट्टी की चाय से छलक्ती वों प्यालियां चीजे भले ही दोनो जगह अलग हो पर दो चीज़े एक ही थी पहली चाय और दूसरी हमारी राजनीतिक बहस हम इसी में उलछे थें। दुनिया में उस समय एक अलग ही जंग चल रहीं थी ये कोई जनवरी की बात थी दुनिया नये साल के जशन में डूबी हुई थी शायद कहीं, उस जंग का बिगुल बज चुका था पर हम क्या पूरा विश्व ही इससे अनजान था। भारत भी पूरी दुनिया की तरह इस साल नई ऊचांईयों के सपने देख रहा था, पर शायद कुदरत ने कुछ और ही सपने देखे थे इस मानवजाति के लिये पर कु